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अप्प दीपो भव / शुद्धोदन 3 / कुमार रवींद्र
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राजा हैं
हाथों में छत्र-मुकुट लिये खड़े
एक-एककर
सारे कुँवर उन्हें
केंचुल-सा छोड़ गये
जात-नात-गोत
सभी के बंधन तोड़ गये
बरगद थे वे -
उनके हरे सभी पात झड़े
बूढ़े वे -
छत्र-मुकुट-सिंहासन
उनको हैं भार हुए
बिरवे जो रोप थे
सभी छार-छार हुए
आसपास
सारे आकाशकुसुम झरे पड़े
यादें ही हैं पिछली
आगे कुछ जीने को नहीं बचा
घिसट रहे -
पाँवों के नीचे है रेत तचा
सोच रहे
कब तक यों चलना है
रेती में गड़े-गड़े