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आओ, घर लौट चलें / विनोद निगम
Kavita Kosh से
और नहीं, भीड़ भरा यह सूनापन
आओ, घर लौट चलें, ओ मन !
आमों में डोलने लगी होगी गँध
अरहर के आस-पास ही होंगे छँद
टेसू के दरवाज़े होगा यौवन !
सरसों के पास ही खड़ी होगी
मेड़ों पर, अलसाती हुई बातचीत
बँसवट में, घूमने लगे होंगे गीत
महुओं ने घेर लिया होगा, आँगन !
खेतों में तैरने लगे होंगे दृश्य
गेहूँ के घर ही होगा अब भविष्य
अँगड़ाता होगा खलिहान में सृजन !
आओ घर लौट चलें, ओ मन !