भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आकाश-चित्र / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिलाखंड दमकते आग से
खा गया आकाश
अग्नि किरणें, अग्नि सागर
पी गया आकाश
अग्नि को आगोश में
लेकर उठा आकाश
अग्नि पाकर अग्नि-अग्नि
हो गया आकाश।
देखिए आकाश की, फितरत ज़रा तो देखिए
झुलसा नहीं, दहका नहीं
बस, झुक गया आकाश।
आकाश से कुछ गुफ्तगू
करने को जी ललचा उठा
दहको नहीं, झुलसो नहीं
बोला मेरा आकाश
और तब आकाश से
अग्नि की किरणें बेख़बर
फूल आशिष की बनी
और हंस रहा आकाश।