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आग्नेयगिरी / सुकान्त भट्टाचार्य / उत्पल बैनर्जी

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कभी-कभी अचानक लगता है
कि मैं एक आग्नेय पर्वत हूँ ।
शान्ति की गहरी छाया से घिरी गुफ़ा में सो रहे सिंह की तरह
बहुत दिनों की नींद है मेरी आँखों में ।
विस्फोटों के अन्तराल में
कितनी ही बार तुमने मेरी हंसी उड़ाई है
मैं पत्थर की तरह सब कुछ सहता रहा ।

मेरे चेहरे पर झीनी हंसी है
और सीने में धधक रहा है पुँजीभूत लावा
सिंह की तरह अधखुली आँखों से मैं सिर्फ़ देख रहा हूँ,
झूठ की नींव पर कल्पना के गारे से निर्मित तुम्हारे शहर,
और मुझे घेरे हुए है रचित उत्सव की निर्बोध अमरावती —
कटाक्ष की हँसी और विद्वेष की आतिशबाज़ी —
तुम्हारे नगर में है मदोन्मत्त पूर्णिमा ।

देखो, देखो —
घनी छाया, घने जंगल मुझे देखो;
देखो मेरी उदासीन वन्यता ।
तुम्हारा शहर उड़ाता रहे मेरा उपहास
कुल्हाड़ी से आहत करे मेरा धैर्य,
तुम मत करना विश्वास कि
विसुवियस-फ़्यूज़ियामा का सहोदर हूँ मैं !
तुम्हारे लिए अज्ञात ही रहे
भीतर-ही-भीतर मरोड़ लेते मेरे आग्नेय-उद्गार
अरण्य-ढँकी अन्तर्निहित आग की लपटें ।

तुम्हारे आकाश में है फीका प्रेत-उजाला
जंगली पहाड़ पर है धुएँ का झीना अवगुण्ठन,
आशंका की कोई बात नहीं — शायद कोई नया मेघदूत, वह !
उत्सव मनाओ; उत्सव मनाओ --
भूल जाओ कि नेपथ्य में एक आग्नेय-पर्वत है
विसुवियस-फ़्यूज़ियामा का जाग्रत वंशज।
और हमारे
रोज़नामचे में दर्ज़ हो जाए
आसन्न विस्फोट की चरम पवित्र तिथि ।

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी