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आज तेरी याद का दिन! / रामगोपाल 'रुद्र'
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अनगिनत निशि-याम दृग ने दिन बनाए;
बूँद-बूँद बटोर नभ के ऋण चुकाए;
चाँदनी के ध्यान पर अब धुंध छाता जा रहा है,
और, खग पछता रहा है;
दूर होता जा रहा है नीरनिधि से चाँद छिन-छिन!
कामना तो थी कि मिल जाए सुधाधर!
प्यास कुछ बढ़ ही गई कुछ ओस पाकर;
आसमाँ गलकर धरातल को जलाता जा रहा है;
दूब-दल कुम्हला रहा है;
प्रात अनुदिन बीन जाता रात के उडु-फूल गिन-गिन!
भोर के पोछे नयन-अंचल अचल के,
साँझ तक, रश्मिल हिंडोरों पर न ललके;
दूर होता दिन धरा को ध्रुव दिखाता जा रहा है;
क्षितिज को समझा रहा है;
याद में तेरी जला जाते तुहिन के दीप, तृण-तृण!