भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आजादी / मनोज पुरोहित ‘अनंत’
Kavita Kosh से
म्हे तो उडाया
मनां कनां
स्याणप सूं
धोळिया कबूतर
स्यांति अर संपत सारू।
थे तो
मार ई काढ्या
म्हे तो
होया कुरबाण
थांरी आजादी सारू
थां रोपी
म्हारी मूरत्यां
घाली माळा
म्हारै गळै में
होग्या आजाद
अब उजाड़ो घर
निरबळां रो
म्हे तो नीं दी
इत्ती आजादी
फेर थे
इयां कियां होग्या
इत्ता आजाद ?