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आत्म-बोध / भाग 4 / मृदुल कीर्ति

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कारण, सूक्ष्म देह स्थूला, जैसे जल का एक बुलबुला.
शुद्ध ब्रह्म चैतन्य स्वरूपा, पूर्ण तत्व बिनु देह अरूपा॥३१॥

जन्म ,ज़रा, मृत्यु आबद्धा, ना मैं देह न काल निबद्धा.
ज्ञानिन्द्रिन सों परे की सता, निरासक्त परब्रह्म इयत्ता॥३२॥

राग,द्वेष, भय, दुःख विमुक्ता, मन से परे, न प्राण से युक्ता,
मन विहीन मैं सत्य स्वरूपा, शास्त्र कहत अथ तथ्य अनूपा॥३३॥
निर्गुण, निर्मल, बिनु आकारा , निर्विकल्प, शुचि बिना विकारा.
निर्विकार, नित, मुक्त निरंजन, शाश्वत ,निष्क्रिय आत्म आनंदम॥३४॥

बृहत व्योम वत आत्म पसारा, अंतर्बहिर वस्तु विस्तारा,
आत्म तत्व मैं शुद्ध असंगा, चिदाकाश नित ,सत्व अभंगा॥३५॥

शुद्ध विमुक्तं एक अखंडा, मैं ही वस्तुतः नित्यानंदा
मैं असीम अद्द्वैत्य अनन्या, शाश्वत पूर्ण ब्रह्म महे धन्या॥३६॥

सतत कहो कि ' मैं ही ब्रह्मा ', संस्कार अथ गहरे गम्या
औषधि जैसे रोग नसावे, ब्रह्म ज्ञान अज्ञान नसावै॥३७॥

स्थिर चित एकांत आसीना, इन्द्रिय संयम, चाह विहीना.
ध्यान आतमा पर धरि धीरा, जो असीम अद्द्वैत गंभीरा॥३८॥

वस्तु परक यह जगत पसारा, आत्म परक सुधि जना विचारा.
सतत आतमा पर धरि ध्याना, जो सत शुद्ध है गगन समाना॥३९॥

ब्रह्म ज्ञान वेत्ता जिन होई, नाम , रूप सब तजत हैं सोई.
वे परिपूर्ण चिदानंद रूपा, रहत अवष्ठित आत्म स्वरूपा॥४०॥