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आदमी और समय / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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आदमी बलवान है या
है समय बलवान;
फैसला यह करसका
अब तक नहीं इंसान।

‘है समय बलवान नर का
क्या बड़ा’ यह उक्ति
लोक-अनुभव की तुला पर
है तुली अभिव्यक्ति।
उक्ति क्या यह है समय की
शक्ति का न प्रमाण?।1।

धारणा यह आम-सुख दुख
हैं समय के फेर;
दिन बदलते हैं मनुज के
देर या कि सबेर।
क्या न यह भी है समय की
शक्ति की पहचान?।2।

मानते पूर्वज-समय है
ब्रह्म का पर्याय;
है अनादि-अनंत -अनगिन
पृष्ठ का अध्याय।
....-रँग-रस-गंध-स्पर्श
निनाद-रिक्त विधान।3।

मानते यह भी कि सारी
सृष्टि समयाधीन;
जन्म लेती और होती
हैं उसी में लीन।
इसलिए माना उन्होंने
काल को भगवान।4।

पर भुजा-बल, बुद्धि के
आत्म-बल के साथ
आदमी का भी समय के
सँग मिला कर हाथ
स्वर्ण युग लाने धरा पर
चल रहा अभियान।5।

आ रहा वह भी बदलता
है समय की धार;
इसलिए प्रभुता समय की
कब उसे स्वीकार?
ससोचता है वह-समय से
कम नहीं इंसान।6।

किन्तु समय समष्टि, मानव
का प्रकृति का योग;
विश्व में जो घटित उसका
संघटित संयोग।
है समूची चेतना की
ज्योति का दिनमान।7।

प्रगति-परिवर्तन समय के
अंगदी दो पैर;
कर रहा जिन पर सतत
ब्रह्माण्ड की वह सैर;
घूमता अविराम उसका
धर्म-चक्र महान।8।

पर, समय यदि ब्रह्म तो मनु-
पुत्र ीाी ब्रह्मांश;
सृष्टि भी यह ब्रह्म की
देशान्तर-अक्षांश।
अतः बल में समय-मानव
सिंधु-बिंदु समान।9।

22.12.90