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आदमी बहुत पढ़े हैं / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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पढ़ीं किताबें बहुत न मैंने
किंतु आदमी बहुतपढ़े हैं।

है किताब हर एक आदमी
पन्ने नयन-मुखाकृति उसके,
होते रहते अंकित उन पर
भाव-अभाव दुःख के, सुख के।
उसके ही ऊपर मेरे ये
रहते दोनों नयन गढ़े हैं॥1॥

जितना-जितना गहराई से
पढ़ता हूँ मैं इस किताब को;
लगता है मैं देख रहा हूँ
आसमान के आफताब को।
ज्योति पुंज, अद्भुत, असीम वह
हम ससीम उसकी समझे हैं॥2॥

महाकाव्य यह उस असीम का
रचना दिव्य, अपौरुषेय है;
है सत्-चित्-आनंद-सिंधु यह
मेरे कवि का यही गेय है।
इसी सिंधु के बिन्दु-बिन्दु से
कविता के ये बंध बने हैं॥3॥

खुला विश्वविद्यालय है यह
खुली विश्व विज्ञान भारती,
खुला हुआ यह विश्व-कोश है
खुली हुई यह विश्व भारती।
इसी विश्व-चेतन के स्वर को
मेरे कवि नेकंठ दिए हैं॥4॥

18.3.92