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इक घर बना लेते जहाँ / विपिन सुनेजा 'शायक़'

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इक घर बना लेते जहाँ, ऐसा नगर कोई न था
हम उम्र भर चलते रहे और हमसफ़र कोई न था

हमको सदा उस पार से आवाज़ सी आती रही
जब फ़ासिले तय कर लिए देखा उधर कोई न था

पत्थर को माना देवता लेकिन वो पत्थर ही रहा
हम गिड़गिड़ाते ही रहे उस पर असर कोई न था

ख़ुशफ़हमियों में हमने कितना वक़्त ज़ाया कर दिया
ज़िन्दा रहे किसके लिए अपना अगर कोई न था

हमको हमारे बाद कोई याद करता किसलिए
कुछ शे'र कहने के सिवा हममें हुनर कोई न था