भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इन दिनों / ब्रजेश कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन दिनों जब भी मैं
अपने शहर के बाहर होता हूँ
जूझता हूँ अपने हितैषियों के
एक सवाल से:
कुरुक्षेत्र के क्या हाल हैं?
आतंकवाद का ख़तरा तो नहीं?
मैं हँसता हूँ: आपकी दुआ है
अभी तक बचा है

इन दिनों जब भी मैं
अपने शहर में होता हूँ
मेरे साथ होता है
बच्चों जैसी निश्छल हँसी वाला
सरबजीत का चेहरा

मेरा पड़ोसी पूछता है:
यह सरदार कौन है?
कहता हूँ मैं कुछ सख़्ती से:
यह कवि है
पढ़ता है/लिखता है
करता है चिन्ता
सारी दुनियाँ-जहान की
पड़ोसी फिर कहता है:
तभी यह हिन्दुओं की तरह हँसता है

उसके इस अश्लील मज़ाक का
मैं क्या करूँ?
चिन्ता है मुझे

इन दिनों जब भी मैं
इस शहर से बाहर जाऊँगा
क्या जवाब दूँगा
अपने हितैषियों के
इस सवाल का कि
कुरुक्षेत्र के क्या हाल हैं?
आतंकवाद का ख़तरा तो नहीं?