भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इन्द्रधनुष झूले / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
झील किनारे
पाँव पखारे
सन्ध्या गंध भरी
सूरमुखी देह की छाया लगी सोनमछरी ।
मंजीरे-सी बजीं
चूड़ियाँ हाथें की
जल की
तन-मन पर सिहरी
आलोकित छवि
हल्की-हल्की
जगह-जगह समकोण बनाती दीपशिखा उभरी ।
आदमकद शीशे में
गीले इन्द्रधनुष
झूले
महक गए सीमान्त
स्नेह के फूले-
अनफूले
छाँह पहाड़ी चढ़ी शिरीष पर कंचन की गगरी।