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इन्हीं फूलों के लिए / सुरेन्द्र स्निग्ध
Kavita Kosh से
मेरे उत्तप्त जीवन में
हवा के तेज़ झोंके की तरह
आई थीं तुम
वासन्ती ख़ुशबू की आन्धी की तरह
छाई थीं तुम
मेरे जीवन संघर्ष की
कठोर भूमि को
अपने प्यार से सींचा है तुमने
लड़खड़ाते क़दमों को
बार-बार देकर सहारा
खींचा है तुमने
आज तुम निस्तेज
और करुणाभरी
दर्द से डूबी हुई
और पराजय की भावना भरी
आँखों से ताक रही हो तुम !
कैसे निष्प्राण हो गई हैं
तुम्हारी बाँहें
चाहकर भी नहीं
समेट पाती हो
मेरे दुखी जीवन को
इन बाँहों में
चाहकर भी नहीं
खिला पा रही हो
मेरे सूखे होठों पर
चुम्बनों के फूल !
देखो,
अकेले लड़ रहा हूँ
अथक,
इन्हीं फूलों के लिए
इन्हीं ख़ुशबुओं के लिए !