उत्तर काण्ड / भाग 15 / रामचंद्रिका / केशवदास
<< पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ |
भरत लक्ष्मण शत्रुहा पुर भीर टारत जात।
चौंर ढारत हैं दुबौ दिसि पुत्र उत्तमगात।।
छत्र है कर इंद्र के सुभ सोभिजै बहु भेव।
मत्तदंति चढ़े पढ़ैं जय शब्द देव नृदेव।।295।।
यज्ञथली रघुनंदन आये।
धामनि धामनि होत बधाये।।
श्री मिथिलेशसुता बड़ भागी।
स्यौं सुत सासुन के पग लागी।।296।।
(दोहा) चारि पुत्र द्वै पुत्र सुत, कौशिल्या तब देखि।
पायौ परमानंद मन, दिगपालन सम लेखि।।297।।
रूपमाला छंद
यज्ञ पूरन कै रमापति दान देत अशेष।
हीर नीरज चीर मानिक वर्षि वर्षा वेष।।
अंगराग तड़ाग बाग फले भले बहु भाँति।
भवन भूषण भूमि भाजन भूरि बासर राति।।298।।
(दोहा) एक अयुत गज वाजि द्वै, तीनि सुरभि शुभवर्ण।
एक एक विप्रहिं दयी, केसव सहित सुवर्ण।।299।।
देव अदेव नृदेव अरु, जितने जीव त्रिलोक।
मन भायौ पायौ सबन, कीन्हें सबन अशोक।।300।।
राज्य वितरण
अपने अरु सोदरन के, पुत्र विलोकि समान।
न्यारे न्यारे देश दै, नृपति करे भगवान।।301।।
कुश लव अपने, भरत के नंदन पुष्कर तक्ष।
लक्ष्मण के अंगद भये, चित्रकेतु रणपक्ष।।302।।
भुजंगपयात छंद
भले पुत्र शत्रुघ्न द्वै दीप जाये।
सदा साधु सूरे बढ़े भाग पाये।।
सदा मित्रपोषी हनैं सत्रु छाती।
सुबाहै बड़ो दूसरो शत्रुघाती।।303।।
(दोहा) कुश को दयी कुशावती, नगरी कोशल देस।
लव को दयी अवंतिका, उत्तर उत्तम वेस।।304।।
पश्चिम पुष्कर को दयी, पुष्करवति है नाम।
तक्षशिला तक्षहिं दयी, लयी जीति संग्राम।।305।।
अंगद कहँ अंगदनगर, दीन्हों पश्चिम ओर।
चंद्रकेतु चंद्रावती, लीन्हों उत्तर जोर।।306।।
मथुरा दयी सुबाहु कौं, पूरन पावनगाथ।
शत्रुघात कौं नृप करयो, देशहि को रघुनाथ।।307।।
तोटक छंद
यहि भाँति सौं रक्षित श्रूमि भयी। सब पुत्र भतीजन बाँट दयी।।
सब पुत्र महाप्रभु बोलि लिये। बहु भाँतिन के उपदेश दिये।।308।।
राम कथित नीति-शिक्षा
चामर छंद
बोलिए न झूठ, ईठि (मित्रता) मूढ़ पै न कीजई।
दीजिए जो बात, हाथ भूलिहू न लीजई।।
नेहु तोरिए न देहु दुःख मंत्रि को।
यत्र तत्र जाहु पै पत्याहु जे (यदि, जदि, जइ) अमित्र को।।309।।
नाराच छंद
जुवा न खेलिए कहूँ, जुबान (जीभ) वेद रक्षिये।
अमित्रभूमि माहँ जै, अभक्ष भक्ष भक्षिए।।
करौ न मंत्र मूढ़ सैं न गूढ़ मंत्र खोलिए।
सुपुत्र होहु जै हठी मठीन सौं न बोलिए।।
बृथा न पीड़िए प्रजाहि पुत्रमान (बेटे की तरह) पारिए (पालिए)।
असाधु साधु बूझि कै यथापराध मारिए।
कुदेव (कु$देव, भूमिदेव, ब्राह्मण) देव नारि को न बालवित्त कीजिए।।310।।
भुजंगप्रयात छंद
पर-द्रव्य कों तौ विषप्राय लेखौ।
परस्त्रीन सों ज्यौं गुरुस्त्रीन देखौ।।
तजौ काम क्रोधौ महा मोह लोभौ।
तजौ गर्व कौं सर्वदा चित्त छोभौ।।311।।
यशै संग्रहौ निग्रहौ युद्ध योधा।
करौ साधु संसर्ग जो बुद्धि बोधा।।
हितू होइ सो देइ जो धर्म शिक्षा।
अधर्मीन की देहु जै वाक भिक्षा।।312।।
कृतघ्नी कुवादी पर स्त्री विहारी।
करौ विप्र लोभी न धर्माधिकारी।।
सदा द्रव्य संकल्प कों रक्षि लीजैं।
द्विजातीन कों आपुहीदान दीजैं।।313।।
तेरह मंडल मंडित भूतल भूपति जो क्रमही क्रम साधै।
कैसेहू ताकहँ शत्रु न मित्र सुकेशवदास उदास न बाधै।।
शत्रु समीप परे तेहि मित्र से तासु परे जो उदास कै जोवै।
विग्रह संधिनदानिन सिंधु लौं लै चहुँ ओरनि तौ सुख सोवै।।314।।
(दोहा) राजश्रीवश कैसेहूँ, होहु न उर अवदात।
जैसे तैसे अपुवश, ताकहँ कीजै तात।।315।।
इति