उत्तर काण्ड / भाग 1 / रामचंद्रिका / केशवदास
चतुष्पदी छंद
हनुमंत विलोके भरत ससोके अंग सकल मलधारी।
वकला पहिरे तन, सीस, जटा गन, हैं फल मूल अहारी।।
बहु मंत्रिनगन मैं राज-काज मैं सब सुख सौं हित तोरे।
रघुनाथ पादुका तन मन प्रभु करि सेवत अजुलि जोरे।।1।।
भरत प्रति राम संदेश
हनुमान-
सब सोकनि छाँड़ौ, भूषन माँड़ो, कीजे विविध बधाये।
सुर-काज सँवारे, रावन मारे, रघुनंदन घर आये।।
सुग्रीव सुयोधन, सहित विभीषन, नुहु भरत सुभ गीता।
जय कीरति ज्यौं सँग अमल सकल अँग सोहत लछमन सीता।।2।।
पद्धटिका छंद
सुनि परम भावती भरत बात।
भये सुख समुद्र मैं मगन गात।।
यस सत्य किधौं कछु स्वप्न ईस।
अब कहा कह्यो मासन कपीस।।3।।
जैसे चकोर लीलै अँगार।
तेहि भूलि जाति सिगरी सँभार।।
जी उठत उवत ज्यौं उदधिनंद (चंद्रमा)।
त्यौं भरत भये सुनि रामचंद्र।।4।।
ज्यौं सोइ रहत सब सूरहीन।
अति ह्वै अचेत यद्यपि प्रवीन।।
ज्यौं उवत उठत हँसि करत भोग।
त्यौं रामचंद्र सुनि अवध लोग।।5।।
मालिनी छंद
जहँ तहँ गज गाजैं दंदुभी दीइ बाजै।
बहुवरण पताका स्वदनाश्वादि राजैं।।
भरत सकल सेना मध्य यौं वेष कीने।
सुरपति जनु आये मेघमालानि लीने।।6।।
सकल नगरबासी भिन्न सेनानि साजैं।
रथ मुगज पताका झुंडझुंडानि राजैं।
थल थल सब शोभैं शुभ्र शाभानि छायी।
रघुपति सुनि मानों औधि सी आज आयी।।7।।
चामर छंद
यत्र तत्र दास ईंस व्योम तें बिलोकहीं।
वानरालि रीछराजि दृष्टि सृष्टि रोकहीं।।
ज्यौं चकोर मेघ ओघ मध्यपंद्र लेखहीं।
भानु के समान जान त्यौं विमान देखहीं।।8।।
राम भरत मिलन
मदनमनोहर दंडक
आवत विलोकि रघुवीर लघु वीर तजि
व्यम गति भूतल विमान तब आइया!
राग पद पù सुख सù जहँ बंधु युग
दौरि तब षट्पद समान सुख पाइयो।।
चूमि मुख सूँघि सिर अंक रघुनाथ धरि
अश्रु जल लोचननि पेखि उर लाइयो।
देव मुनि वृद्ध परसिद्ध सब सिद्ध जन
हषि तन पुष्प-बरषानि बरषाइयो।।9।।
(दोहा) भरत-चरण लक्ष्मण परे, लक्ष्मण के शत्रुघ्न।
सीता पग लागत दियो, आशिष शुभ शत्रुघ्न।।10।।
मिले भरत अरु शत्रुहन, सुग्रीवहि अकुलाइ।
बहुरि विभीषन को मिले, अंगद को, सुख पाइ।।11।।
आभीर छंद
जामवंत नल नील। मिले भरत शुभ शील।।
गवय गवाक्ष गयंद। कपिकुल सब सुखकंद।।12।।
ऋषि वशिष्ठ को देखि। जनम सफल करि लेखि।।
राम परे उठि पाय। लक्ष्मण सहत सुभाय।।13।।
(दोहा) लै सुग्रीव विभीषणहिं करि करि बिनय अनंत।
पाँयन परे वसिष्ठ के, कविकुल बुधि बलवंत।।14।।
पद्धटिका छंद
राम-
सुनिजै वसिष्ठ कुलइष्टदेव। इन कपिनायक के सकल भेव।।
हम बूड़त हे बिपदा समुद्र। इन राखि लियो संग्राम रुद्र।।15।।
अवध प्रवेश
सुंदरी छंद
अवधपुरी कहँ राम चले जब। ठौरहि ठौर विराजत हैं सब।।
भरत भये शुभ सारथि शोभन। चरम धरे रविपुत्र विभीषन।।16।।
तोमर छंद
लीनी छरी दुहुँ बीर। शत्रुघ्न लक्ष्मण धीर।
टारैं जहाँ तहँ भीर। आनंदयुक्त शरीर।।17।।
भूतल हू दिवि भीर विराजै। दीह दुहूँ दिसि दुंदुभि बाजैं।।
भाट भले बिरदावलि गावैं। मेद मनौ प्रतिबिंब बढ़ावैं।।18।।
भूतल की रज देव नसावैं। फूलन की बरषा बरषावैं।।
हीन-निमेष सबै अवलोकैं। हाड़ परी बहुधा दुहुँ लोकैं।।19।।
अवध वर्णन
विजय छंद
चढ़ीं प्रतिमंदिर सोभ बढ़ीं,
तरुनी अवलोकनको रघुनंदनु।
मनौ गृहदीपति देह धरे,
सु किधौं गृहदेवि बिम हति है मनु।।
किधौं कुलदेवि दिये अति केसव,
कै पुरदेविन को हुलस्यो गनु।
जहीं सा तहीं यहि भाँति लसैं,
दिवि देविन को मद घालति है मनु।।20।।
पयोवती छंद
रघुनंदन आये, सुनि सब धाये पुर जन जैसे तैसे।
दर्शन रस भूले तन मन फूले, बरने जाहिं न जैसे।।
पति के सँग नारी सब सुखकारी रामहिं यौं दृग जोरी।
जहँ तहँ चहुँओरनि मिली झकोरनि चाहति चंद चकोरी।।21।।