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उद्धव! तुम मुझको किसका यह / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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उद्धव ! तुम मुझको किसका यह सुना रहे कैसा संदेश ?
भुला रहे क्योंमिथ्या कहकर? प्रियतम कहाँ गये परदेश ?
देखे बिना मुझे, पलभर भी कभी नहीं वे रह पाते !
क्षणभरमें व्याकुल हो जाते, कैसे छोड़ चले जाते ?
मैं भी उनसे ही जीवित हूँ, वे ही हैं प्राणोंके प्राण।
छोड़ चले जाते तो कैसे तनमें रह पाते ये प्राण ?
देखो-वह देखो, कैसे मृदु-मृदु मुसकाते नन्द-किशोर।
खड़े कदब-मूल, अपलक वे झाँक रहे हैं मेरी ओर॥
देखो, कैसे मा हो रहे, मेरे मुखको पंकज मान।
प्राण-प्रियतमके दृग-मधुकर मधुर कर रहे हैं रस-पान॥
भ्रुकुटि चलाकर, दृग मटकाकर मुझे कर रहे वे संकेत।
अति आतुर एकान्त कुजमें बुला रहे हैं प्राण-निकेत॥
कैसे तुम भौंचक-से होकर देख रहे कदबकी ओर ?
क्या तुम नहीं देख पाते ? या देख रहे हो प्रेम-विभोर ?
हैं ! यह क्या? सहसा वे कैसे, कहाँ हो गये अन्तर्धान ?
हाय क्योंनहीं दीख रहे मुझको मन-मोहन मोद-निधान ?
आँखमिचौनी लगे खेलने क्या वे लीलामय फिर आज ?
दिखा दिया मैंने तुमको, क्या इससे उन्हें आ गयी लाज ?
नहीं, नहीं ! तब क्या वे चले गये सचमुच ही मुझको छोड़ ?
मुझे बनाकर अमित अभागिनि, हाय ! गये मुझसे मुख मोड़ ?
सच कहते हो, उद्धव ! तुम, हो सत्य सुनाते तुम संदेश।
चले गये, हा ! चले गये वे, छोड़ गये रोना अवशेष॥
प्रतिपल जो अपलक नयनोंसे मुझे देखते ही रहते।
सुखमय मुझे देखनेको जो सभी द्वन्द्व सुखसे सहते॥
मेरा दुःख दुःख अति उनका, मेरा सुख ही अतिशय सुख।
वे कैसे मुझको दुख देकर, खो देते निज जीवन-सुख ?
मुझे परम सुख देनेको ही गये मधुपुरीमें, बस, श्याम।
समझ गयी, मैं सुखी हो गयी, निरख सुखद प्रियतमका काम॥
याद आ गयी मुझको सारी मेरी-‌उनकी बीती बात।
जान गयी कारण, इससे हो रही प्रड्डुल्लित, पुलकित-गात॥
सद्‌गुणहीन, रूप-सुषमासे रहित, दोषकी मैं थी खान।
मोह-विवश मोहनको होता मुझमें सुन्दरताका भान॥
न्योछावर रहते मुझपर, सर्वस्व समुद कर मुझको दान।
कहते, थकते नहीं कभी-’प्राणेश्वरि !’ ’हृदयेश्वरि !’ ’मतिमान’॥
’प्रियतम ! छोड़ो इस भ्रमको तुम’-बार-बार मैं समझाती।
नहीं मानते, उर भरते, मैं कण्ठहार उनको पाती॥
गुण-सुन्दरता-रहित, प्रेमधन-दीन, कला-चतुरा‌ई-हीन।
मूर्खा, मुखरा, मान-मद-भरी मिथ्या, मैं मतिमन्द-मलीन॥
मुझसे कहीं अधिकतर सुंदर सद्‌गुण-शील-सुरूप-निधान।
सखी अनेक योग्य, प्रियतमको कर सकतीं अतिशय सुख-दान॥
प्रियतम कभी भूलकर भी, पर नहीं ताकते उनकी ओर।
सर्वाधिक क्यों? प्यार मुझे देते अनन्यप्रियतम सब ओर॥
रहता अति संताप मुझे प्रियतमका देख बढ़ा व्यामोह।
देव मनाया करती मैं-’प्रभु ! हर लें सत्वर उनका मोह’॥
मेरा अति सौभाग्य, देवने सुन ली मेरी करुण पुकार।
मिटा मोह मोहनका, अब वे प्राप्त कर रहे मोद अपार॥
पाकर सुन्दर चतुरा किसी नागरीको वे प्राणाराम।
भोग रहे होंगे अनुपम सुख, पूर्ण हु‌आ मेरा मन-काम॥
परम सुखवती आज हु‌ई मैं, खुले भाग्य मेरे हैं आज।
सुनकर श्याम-सँदेश सुखाकर, मुद-मङङ्गलमय, जीवन-साज॥
नहीं, नहीं ! ऐसा हो सकता नहीं कभी प्रियतमसे काम।
मेरा-‌उनका अमिट, अनोखा, प्रिय, अनन्य सबन्ध ललाम॥
मुझे छोड़ ’वे’, उन्हें छोड़ ’मैं’-रह सकते हैं नहीं कभी।
’वे मैं’ ’मैं वे’-एक तव हैं; एक रूप हैं भाँति सभी॥
अरे, अरे उद्धव ! देखो तो पुनः प्रकट हो गये सुजान।
प्रेमभरी चितवन सुन्दर, छायी अधरोंपर मृदु मुसुकान॥
ललित त्रिभङङ्ग, कुटिल कुन्तल, सिर मोर-मुकुट, कल कुण्डल कान।
धर मुरली मुरलीधर अधरोंपर हैं छेड़ रहे मधु तान॥
प्रेम-सुधा-सागर राधामें उठतीं बिबिध-बिचित्र तरंग।
देख विमुग्ध हु‌ए उद्धव अति, बरबस विवश हु‌ए सब अङङ्ग॥
उदित नवीन प्रेम-सरिता शुभ बढ़ी अचानक, ओर-न-छोर।
भू-लुण्ठित तन धूलि-धूसरित शुचि, उद्धव आनन्द-विभोर॥