उद्धव! मुझमें तनिक नहीं है / हनुमानप्रसाद पोद्दार
उद्धव ! मुझमें तनिक नहीं है, प्रियतमके प्रति सच्चा स्नेह।
इसीलिये ये नहीं निकलते निष्ठुर प्राण छोडक़र देह॥
रथपर चढ़े जा रहे थे वे मथुरा जब अक्रूरके संग।
फिर-फिर देख रहे थे मेरी ओर दूरसे विगत-उमङङ्ग॥
मैं जीवित ही लौटी प्रियतम-शून्य भवनमें लेकर प्राण।
हुआ न हृदय विदीर्ण उसी क्षण मेरा पामर वज्र समान॥
मनमें भरा लोभ जीवनका तनमें अतिशय ममता-मोह।
इसीलिये ये प्राण अभागे सहते दारुण व्यथा-विछोह॥
दभपूर्ण यह रोना-धोना है सब मेरा करुण विलाप।
भोले माधव समझ नहीं पाते हैं मेरे मनका पाप॥
प्रियतमके वियोगमें भी मैं चला रही निज योग-क्षेम।
उद्धव ! तुम ही समझो मेरा कहाँ श्यामसुन्दरमें प्रेम॥
सत्य, हृदय छिदता है, होते नहीं किंतु उसके दो टूक।
जिससे विरह-मुक्त हो जाती, मरकर मन हो जाता मूक॥
विरह-विकल मूर्छा होती है, पर न चेतना करती त्याग।
अन्तर सदा जलाती रहती, भीषण बढ़ती उरमें आग॥
मेरे प्रियतमके समीपसे, आये हो उद्धव ! बड़भाग।
कुशल, और संदेश सुनाओ यदि भेजा हो कर अनुराग॥