भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उम्र सारी / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो!
सर्द गुमसुम ही रहा
हर साँस पे तारी यारो !


    कोई दुनिया न बने
    रंगे-लहू के खयाल,
    गोया रेत ही पर
तस्वीर उतारी यारो!
उम्र सारी.....


    देखा ही किए झील
    वो समंदर, वो पहाड़,
    अपनी हर आँख
सियाही ने बुहारी यारो !
उम्र सारी.....


    जहाँ सड़क, गली
    आँगन जैसे बाज़ार चले,
    न चले, अपनी न चले
यहां असआरी यारो!
उम्र सारी.....


    रहबरों तक गई
    वो तलाश रहे साथ, सफ़र
    उसकी आबरू
हर बार उतारी यारो !
उम्र सारी.....


    हाँ, निढ़ाल तो हैं
    पर कोई चलना तो कहे,
    मन के पाँवों की
बाकी अभी बारी यारो !
उम्र सारी.....


    उठके डूबे है कहीं
    अपनी आवाज़ यहाँ
    किसी आग़ाज़ से ही
सिलसिला जारी यारो !
उम्र सारी.....


    अब जो बदलो तो कहीं
    हो, गुनहग़ार हरीश
    वही रंगत, वे ही दौर,
वही यारी यारो !


उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो !
सर्द गुम-सुम ही रहा
हर साँस पै तारी यारो !