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ऊधो अखना पखना जलते / आनन्दी सहाय शुक्ल
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ऊधो अखना पखना जलते ।
वन पाँखी की नुची लोथ पर वहशी बिम्ब मचलते ।।
लाल लाल अंगारे सुलगें
दीर्घ अँगीठी दहकें
कोरस गाएँ कबीले नाचें
मद डगमग पग बहकें
सींक कबाब भोज का मीनू कला-कुशल कर तलते ।।
पत्थर की बुनियादों पर ये
लोहे की सन्तानें
शहर जगमगे मनु के मन का
दर्द न बिल्कुल जानें
आबादी के सुरसा जंगल सब कुछ चले निगलते ।।
हानि-लाभ पर निर्भर रिश्ते
साँसों के बेपारी
क्रूर व्यवस्था के जबड़ों में
जीवन पान सुपारी
घर आँगन मरघट के रूपक ऐसे मूल्य बदलते ।।