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ऊधौ! बिसरत नहिं मनभावनि / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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ऊधौ ! बिसरत नहिं मनभावनि।
राधा, राधा की मधु लीला हिय-संताप-नसावनि॥
मुक्त हँसनि, मुसुकावनि मधुमय, चोचल-करनि, हँसावनि।
यंग करनि, मृदु रूठनि, मुख गंभीर करनि, उठि धावनि॥
मान करनि, हिय-ताप जगावनि, नव निकुंज न्‌हिं जावनि।
मन करि रोष, बाष्पपूरित दृग, सिसकि-सिसकि सुबुकावनि॥
रोवनि, स्तध रहनि, मूर्छित ह्वै मो मन भय-‌उपजावनि।
अकुलावनि अति, दूतिहि देखत आतुर मो ढिग आवनि॥
मिलनि मधुर, कोकिल सम बानी सरस सुधा बरसावनि।
मृदुल मनावनि, सकुच सहित सुचि विनय-भाव दरसावनि॥
मुसुकनि नैकु निरखि मो मुख तन, सहसा अति सरमावनि।
नैन मूँदि, मस्तक नीचौ करि, बदन ढाँपि चुचुकावनि॥
सुनतहि बैन प्रेमपूरित मम, चंचल नैन चलावनि।
संभ्रम-सकुच सकल तजि, हँसि-हँसि नैननि नैन मिलावनि॥
अंग-‌अंग सुचि गंध बिलेपनि, मधुर सुगंध लगावनि।
पुष्पहार, भुजहार मनोहर मुक्त-हृदय पहिरावनि॥
चपल, सुधीर, चतुर-चूड़ामनि, सकल सुकला सिखावनि।
मो मन मोद भरनि, अति भोरी, अति सूधी बतरावनि॥
मो सुख-हेतु बिचित्र बिबिध नित नव-नव रूप रचावनि।
प्रानाधिका प्रान-प्रतिमा मम प्रानाधारा पावनि॥
निकसत ना्‌हिं पलक मो मन तैं सुख-सागर लहरावनि।
प्रीति-सुधा-रस दिय मधुर दै, जीवन मधुर बनावनि॥