ऋतु क्या बदली
सूरज वंशी लगा बजाने रोज़ सबेरे
मछुए के सँग
नदी-धार पर दिखा हमें कल
उधर घाट पर
लहरा मछुआरिन का आँचल
मीठी चितवन में
उसके थे इन्द्रधनुष के अनगिन फेरे
हवा हुई मिठबोली
बरगद हुआ पुजारी
खेल रही उसकी बाँहों में
किरणें क्वाँरी
बिना देह का देव -
उसी के सारी शाखाओं पर घेरे
भीतर भी तो
हँसी किसी की गूँज रही है
साँस-साँस में
जैसे रस की धार बही है
कुहरे सिमटे
धूप कह रही - अब लौटेंगे नहीं अँधेरे