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एक भ्रम ही दे दो... / दीप्ति पाण्डेय
Kavita Kosh से
लोहे को पिघलाकार भर दो
इन सपनीली आँखों में
शायद इनकी जिजीविषा वाष्प बनकर उड़ जाए
याकि कुरेदो अपने अविश्वास के नुकीले नाखूनों से
मेरी आत्मा में पड़े वयोवृद्ध घाव रिसने लगें अनवरत
और मिले उन्हें शाश्वत युवा होने का वरदान
मेरी उम्र का वह इकलौता एकाकी खाना भर दो छल से
जिससे फिर कभी किसी से आस न आए
ऐसा हो कि,
गले में अटके प्राणों की रस्साकस्सी से निकले- विषाद
जीवन चाक पर कच्ची मिट्टी सा भ्रम ले आकार
और मैं कहूँ कि एक सुन्दर सपना देखा विगत रात
एक भ्रम ही दे दो मुझे
कि जी पाऊँ अपने शेष पलों में |