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एक सावन चाहिए / यतींद्रनाथ राही

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बहुत बह लिये
संग धार के
लगता है
पतवार मोड़ लें।

बड़ा ज़ोर है
शंखनाद है
संस्थापन है धर्म-राज का
किन्तु नहीं बदला है कुछ भी
ढंग हमारे काम-काज का
धूलभरी द्वारे रंगोली
तुलसी चौरा उजड़ा-उजड़ा
गण के महादेवता की है
नंगीपीठ लटकता चेहरा
कल होगी बरसात
आज ही,
तुम कहते हो
घड़े फोड़ लें।

ढोए थे कंधों पर पुरखे
आज श्रवण के कन्धों लाशें
देख रहे जो खड़े तमाश
वे भी तो हैं
जिन्दा लाशें
यह वैश्विक लाषों की दुनिया
मंगल पर है बसने वाली
पर विकास के जन मंगल की
बातें अब लगती हैं गाली
तुम उत्तर हो
हम दक्षिण हैं
बोलो कैसे
गाँठ जोड़ लें।

करते रहे,
ज़िन्दगी भर हम
इसकी-उसकी चिलम भराई
मरने को तो
इधर कूप है
उधर गए तो गहरी खाई
धरे
प्रार्थना भरी आँजुरी
पोर-पोर में
चुभती फाँसे
अंधियारे-बारूद घुटन में
डूब रही सी
बुझती साँसें
कहो!
गीत गाएँ या रोएँ
काग़ज़ फाड़ें
कलम तोड़ लें
लगता है
पतवार मोड़ लें।