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ओ मेरी मंजरी / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
मेरे कंधे पर सिर रखकर
तुम सो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
मैं तुममें खो जाऊं
तुम मुझमें खो जाओ
मेरी मंजरी आम की।
ये पावों के छाले
बतलाते हैं, तुमने
मेरी खातिर कितनी
पथ की व्यथा सही है
पीर तुम्हारी हर लूँ
यह चाहता बहुत हूँ
किंतु कंठ से मुखरित
होते शब्द नहीं हैं
मेरी शीतल चंदन वाणी
तुम हो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की।
वह भी कैसा सम्मोहन था
खिंचकर जिससे
आये हम उस जगह
जहां दूसरा नहीं है।
यह भी क्रूर असंगति
जीनी पड़ी हमी को
घर अपना है, पर अपना
आसरा नहीं है
बीज बहारों के पतझर में
तुम बो जाओ
औ मेरी मंजरी आम की।
मेरे कंधे पर सिर रखकर
तुम सो जाओ
ओ मेरी मंजरी आम की