औचक चौंकि उठे हरि बिलखत / हनुमानप्रसाद पोद्दार
औचक चौंकि उठे हरि बिलखत।
’हा राधा प्रानेस्वरि! इकलौ छाँडि मोहि भाजी कित॥
ललिता! अरी बिसाखा! धावौ, रंगमंजरी! धावौ।
मेरी प्रानाधिका राधिका कौं झट लाय मिलावौ’॥
लंबे साँस लेहिं, प्रलपहिं, बिलपहिं, दृग आँसू ढारैं।
रुकमिनि सहमि बहुत समुझावति, तदपि न होस सँभारैं॥
पटरानी सब जुरि आर्ईं, लखि दसा, मनहिं भय मानी।
कहा भयौ, पिय भए बावरे, कहा दैव नै ठानी॥
रानी एक दौरि लै आई श्रीमति की छबि मनहर।
देखत ही हँसि उठे स्याम, लीन्हीं लगाय आतुर उर॥
मेरे हिय सौं लगी रहौ तुम निसि-दिन राधा प्यारी।
जीवन-मूरि! छाँडि मोहि, छिन भर रहौ न कबहूँ न्यारी॥
देखि विचित्र दसा प्रियतम की, बिस्मित सब पटरानी।
निज प्रेमहि धिक्कारन लागीं, भई उदय मन ग्लानी॥
कियौ चेत हरि नै, पौंछे पट नैन मृदुल-अरुनारे।
पटरानी पद-पदुम परीं, सब विलखि रही मन मारे॥
कर-कमलनि हरि नै उठाइ निज, धीरज दै चुचकारी।
मृदु हँसि कह्यो-’नैकु सकुचौ मति, छाड़ौ चिंता भारी॥
सपनौ देखि भयौ हौं आतुर, सुध-बुध बिसरी सारी।
करौ हृदय बिस्वास, सदा हौं प्राननाथ, तुम प्यारी’॥
आस्वासन दै या बिधि रानिन कौं हरि नै समुझाई।
राखी हृदय गोय राधा-रति, अनुपम, परम सुहाई॥