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कंकरीट के वंश / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
Kavita Kosh से
बस बातों की मधुराई है।
उर-अन्तर काई-काई है।
युग-उपवन के हर चंदन पर
दृष्टि विषधरों की छायी है।
वह घूघँट वाली मर्यादा
अपवादों में अब आयी है।
लज्जा, ममता, शांति, शील ने,
शब्दों तक गरिमा पायी है।
घिरी विषैली दृष्टि घटा है
शस्यश्यामला धबरायी है।
खुद बारूद डरा सहमा है
जबसे आग मुस्करायी है।
कंकरीट के वंश बढ़ रहे,
भौतिकता की पहुचाई है।
तट से खुद आ लगी मछलियाँ,
मछुआरों की बन आयी है।