कजली / 37 / प्रेमघन
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कैसी करूँ! देत दरकाये अँगिया, उभरे आवैं रामा।
हरि हरि नाहीं मानै मदमाते जोवनवाँ रे हरी॥
लगे सखी सावनवाँ अजहू आए नहीं सजनवाँ रामा।
हरि हरि मोरवा बोलन लागे बनवाँ-बनवाँ रे हरी॥
पिया प्रेमघन के बिन कैसौं भावै नहीं भवनवाँ रामा।
हरि हरि सूनौ सेजिया लागै नहीं नयनवां रे हरी॥64॥
॥दूसरी॥
बिलसत बदन अमन्द चन्द पर काली घूँघरवाली रामा।
हरि हरि लोटैं लट मानो पाली नागिनियाँ रे हरी॥
सोहै नाक नथुनयाँ, लटकैं मोतिन की लटकनियाँ रामा।
हरि-हरि जियरा मारै कमर परी करधनियाँ रे हरी॥
मन्द मन्द मुसुकनियाँ, बाँकी भौंहन की मटकनियाँ रामा।
हरि-हरि भूलैं नाहीं मधुर बोल बोलनियाँ रे हरी॥
गतिगयन्द गामनियाँ, छम्-छम् बाजै पग पैजनियाँ रामा।
हरि हरि कुच नितम्ब के भार लंक लचकनियाँ रे हरी॥
अजब उमंग जवनियाँ, डाले जादू जनु मोहनियाँ रामा।
हरि हरि रसिक प्रेमघन सम हम पर तू जनियाँ रे हरी॥65॥
॥तीसरी॥
(बारांगनारहस्य नाटक से संगृहीत)
जादू भरी अजब जहरीली मानो हनत कटारी रामा।
हरि-हरि बाँके नैनन की चंचल चितवनियाँ रे हरी॥
सुभग सौसनी सारी, सोहै तन पर कैसी प्यारी रामा।
हरि हरि बादर मैं ज्यों दमकै दुति दामिनियाँ रे हरी॥
कोकिल बैन सुनाय, मन्द मुसुकाती क्या बल खाली रामा।
हरि हरि मदमाती जाती गयन्द गामिनियाँ रे हरी॥
बरबस मन बस किये प्रेमघन बरसत रस इतराई रामा।
हरि हरि इत आई वह कहौ कौन कामिनियाँ रे हरी॥66॥