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कब तक / जयप्रकाश कर्दम
Kavita Kosh से
कब तक रोती रहेंगी आंखें
कब तक आखिर कब तक
कब तक घुटती रहेंगी सांसें
कब तक आखिर कब तक?
दलित रूप में जन्म लिया
जब से हमने धरती पर
नित्य अनादर, घृणा का विष
पीते आए अब तक।
नंगे तन, भूखे पेट लिए
कैसे जग संग चल पाते
पिछड़ेपन का यह दंश पीढियां
सहेंगी कितना, कब तक?