भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कभी-कभी / रेणु हुसैन
Kavita Kosh से
दस्तक बजती रहती है
कोई नहीं आता
कुछ कहती है तन्हाई
समझ नहीं आता
हर लमहा ऐसा उलझे
सुलझाया नहीं जाता
वक्त ये कैसा
बिताया नहीं जाता