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कविता / अपर्णा अनेकवर्णा
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उँगलियों के नाखूनों के साथ ही..
चबा जाती हूँ ख़ुद पे भरोसा अपना..
आत्मसन्देह से आत्मविश्वास तक का पुल..
कच्चा-सा है.. डोलने लगता है
तब कुछ स्नेही बढ़ कर.. थाम लेते हैं
कुछ तो घबराए से.. पास आ जाते हैं
कुछ दूर से.. चमकती मुस्काने ओढ़े..
धड़कता दिल छुपाए.. भरोसा दिलाते हैं
इस तरह.. मैं थोड़ी-सी.. ज़रा-सी कविता
और बुन.. गुन.. कह.. लिख लेती हूँ...