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क़ैद इतने बरस रहा है ख़ून / सूर्यभानु गुप्त
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क़ैद इतने बरस रहा है ख़ून
छूटने को तरस रहा है ख़ून
गाँव में एक भी नहीं ओझा
और लोगों को डस रहा है ख़ून
सौ दुखों का सितार हर चेहरा
तार पर तार कस रहा है ख़ून
छतरियाँ तान लें जो पानी हो
आसमाँ से बरस रहा है ख़ून
प्यास से मर रही है ये दुनिया
और पीने को, बस, रहा है ख़ून