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काँच के अन्दर की ख़ामोशी / दिनेश जुगरान
Kavita Kosh से
आधी फटी बनियान
पहने वह बच्चा
जो उठा रहा है
चाय के जूठे गिलास
उसी आदमी का बेटा है
धो रहा है जो
बगल की दुकान में बर्तनों को
और उस औरत का जो
फुटपाथ पर लगा रही है झाडू
इस दृश्य की परछाइयाँ
पास वाली ऊँची दीवारों
और काले शीशों पर नहीं पड़तीं
हाँ,
शाम के समय
पास वाले पेड़
जरूर झुक कर रो लेते हैं
और सदियों से बहती
पवित्र नदी के रेतीले छोर
चीख कर
छूना चाहते हैं
आकाशों को
और चाँदनी
पत्थरों पर चुभती हुई
कटीले तारों में फड़फड़ाती है
यह कैसा मौसम है
जो बदल देता है
चट्टानों की आकृति को
ऐसे क्षणों में
बादलों के समूह का
अपने अन्दर की हड्डियों से
जुड़ता है एक रिश्ता
जिस्म लगता है
बंद खोह की तरह
कैद हैं जिसमें कई आवाजे़ और
परछाइयाँ
जैसे हो किसी काँच के
अन्दर की ख़ामोशी