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काग़ज़ / प्रशान्त 'बेबार'

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काग़ज़ की ज़ुबाँ बड़ी ख़ामोश है
इंतज़ार में रहते हैं काग़ज़ उम्र भर
कभी किसी क़लम की राह ताकते
कभी किसी स्याही की आस पालते
कभी चूँ तक नहीं करते
सिर्फ़ खड़खड़ाते हैं बेचैनी में

जो कभी जिल्द में कैद कर दूँ तो
किसी गैर कारवां में मायने मिल जाते हैं
वर्ना यूँ ही यतीम से फिरते हैं
किसी शायर की दवात तले

स्याही को ग़ुरूर कि वो मिटती नहीं
क़लम को फ़क्र उसकी आवाज़ है बुलंद
मगर बिना जिसके न स्याही न क़लम
किसी का वजूद तक नहीं
बस वो काग़ज़ ख़ामोश रहते हैं
जाने किस इंतज़ार में तकते हैं
कैसी ज़ुबाँ है काग़ज़ की
ये बड़े ख़ामोश रहते हैं।