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काळ / श्याम महर्षि
Kavita Kosh से
धरती इण बरस ई
सूख‘र कांटो
हुयगी
मझ दोपारां
सोंवतो जाय रैयो
धान
नागौरणा री लपटां सूं,
पंख-पंखेरू
आंवतै काळ सूं
डरपीज‘र
मींचली है आंख
आथूणी अर उतरादी
रोही रा
भूखा सांसर
भेळ दिया खेत
आखै गांव रा,
इण बरस रो
चौमासो बिना विसांयत रै
हुयग्यो है व्हीर
रूस्सैड़ो सो,
भागीरथियै रै खेत री
दो मण बाजरी
करलिया पग
अर सेठ भुगानै रै
कोठै मांय जावणै नैं
उत्तावळ करै।