भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कितना और अभी चलना है / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
गिरती पड़ती
चलती जाती
मंज़िल कहीं
दीख न पाती
पर्वत दर पर्वत
चढ़ना है
जब तक तेल
खत्म नहीं होता
जब तक बाती
रहे भिगोता
दीपक को तिल-तिल
जलना है
चुपके-चुपके
संझा आती
सुरीला आंचल
फैलाती
सूरज छुपे दिवस
ढलना है।
रजनी जाती
प्रातः आती
आशा की
किरणें मुस्काती
ठगनी माया की
छलना है।