भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ जिस्म तो कुछ उसमें / प्रताप सोमवंशी
Kavita Kosh से
कुछ जिस्म तो कुछ उसमें हुनर ढूढ़ रहे थे
हम आंख में नीयत का असर ढूढ़ रहे थे
सब पूछ रहे थे कि वजह मौत की क्या थी
हम लाश की आंखों में सफर ढूढ़ रहे थे
उस मोड़ से होकर तुझे जाना ही नहीं था
पागल थे जो ता-उम्र उधर ढू़ढ रहे थे
बच्चे जो हों परदेस तो पूछो न उनका हाल
तिनका भी गिरे तो वे खबर ढूंढ रहे थे
इस दौर ने हर चेहरे पे बेचैनियां लिख दीं
इक उम्र से सब अपना ही घर ढूढ़ रहे थे