भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुर्सी / राजेन्द्र जोशी
Kavita Kosh से
कैसी भी हो
कुर्सी बिकती हैं
कुर्सी का मोल लगता हैं
कुर्सी का समय तय नहीं
खरीददार की इच्छा पर
निर्भर करता हैं
बदल सकते हैं कुर्सी
बदलती भी हैं बोली
मोल भाव होता हैं
कैसी भी हो कुर्सी
कब होगी
बिना भाव की
यह कुर्सी !