भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केतना फागुन बीत गेलइ / जयराम दरवेशपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सून से जरिया नागिन बनलइ
रातो भर फुफकारऽ हे
मन के टूटल तार-तार हे
बधुआ एने निहारऽ हे

सोंच फिकिर के महा समुद में
मन उबडुब होवऽ हे
हम अकुलाइत रहूँ रात भर
सउँसे दुनिया सोवऽ हे
धुज्ज अन्हरिया नाच-नाच के
हिय में मुक्का मारऽ हे

कत्ते दसहरा देखइत चलि गेल
केतना फागुन बीत गेलइ
बिरह के जर-जर
हमर जुआनी सीझ गेलइ
नेह प्रेम के टिम टिम दीया
असरा रह-रह बारऽ हे
सावन भादो बन के अँखिया
कत्ते नीर बहावऽ हे
ई विपत के बादर हमरा
अनबुझ सन तरसावऽ हे
हम्मर कने सबेरा भागल
दुखिया के दुतकारऽ हे।