भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई साया न कोई हम-साया / 'शहपर' रसूल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई साया न कोई हम-साया
आब ओ दाना ये किस जगह लाया

दोस्त भी मेरे अच्छे अच्छे हैं
इस मुख़ालिफ़ बहुत पसंद आया

हल्का हल्का सा इक ख़याल सा कुछ
भीनी भीनी सी धूप और छाया

इक अदा थी कि राह रोती थी
इक अना थी कि जिस ने उकसाया

हम भी साहिब दलां में आते हैं
ये तिरे रूप की है सब माया

चल पड़े हैं तो चल पड़ें साईं
कोई सौदा न कोई सरमाया

उस की महफ़िल तो मेरी महफ़िल थी
बस जहाँ-दारियों से उकताया

सब ने तारीफ़ की मिरी ‘शहपर’
और मैं अहमक़ बहुत ही शर्माया