भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या सोहै सीस पर तेरे दुपट्टा धानी / प्रेमघन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या सोहै सीस पर तेरे दुपट्टा धानी,
मन मेरा मस्त हो गया दिल जानी॥
मुख पर क्या सोहैं छुटी लटैं लटकाली,
आशिको के दिल डसने को नागिन पाली,
चमकीली चौंकाली आलशी घुँघराली,
हैं कहीं डंक बिच्छू से जहराली,
देती हैं पेंच ये आपस में उल्झानी,
मन मेरा मस्त हो...दिलजानी॥14॥

दोनों यह चश्म नरगिसी तेरे मतवारे,
मृग मीन खंज अरविंद लजाने हारे,
क्या सजे संग सुरमे के ये रत्नारे,
दिल दीवाना करते हैंनैन तुमारे,
चुभ जाती चितवन यह प्यारी अलसानी,
मन मेरा मस्त हो...दिलजानी॥

क्या कहूँ चाँदसे मुखड़े की छबि तेरे,
पाता हूँ नहीं मिसाल जगत में हेरे,
गुल दोपहरी लखि मधुर अधर मुरझेरे,
दाने अनार दाँतों को देख गिरे रे,
खुश अंग-अंग दुति दामिन देखि लजानी,
मन मेरा मस्त हो...दिलजानी॥15॥

शोभा सब संचि विरंचि मनोहरताई,
साँचे में ढाल ये कारीगरी, दिखाई,
एक अचरज की पुतली-सी तुम्हेंबनाई
चातुरी आपनी लाज लपेट छिपाई,
निरखत बद्री नारायन से सैलानी,
मन मेरा मस्त हो...दिलजानी॥