क्षोभ 3 / प्रेमघन
जाहिल औ जंगली जानवर कायर क्रूर कुचाली रामा।
हरि हरि हाय! कहावैं भारतवासी काला रे हरी॥
भये सकल नर में पहले जे सभ्य सूर सुखरासी रामा॥
हरि हरि सुजन सुजान सराहे विबुध विशाला रे हरी॥
सब विद्या के बीज बोय जिन सकल नरन सिखलाये।
हरि हरि मूरख, परम नीच, ते अब गिनि जाला रे हरी॥
रतनाकर से रतनाकर जहँ धनी कुबेर सरीखे रामा।
हरि हरि रहे, भये नर तहँ के अब कँगाला रे हरी॥
जाको सुजस प्रताप रह्यो चहुँ ओर जगत में छाई रामा।
हरि हरि ते अब निबल सबै बिधि आज दिखाला रे हरी॥
सोई ससक, सृगाल सरिस अब सब सों लहैं निरादर रामा।
हरि हरि संकित जग जिनके कर के करवाला रे हरी॥
धर्म, ज्ञान, विज्ञान, शिल्प की रही जहाँ अधिकाई रामा।
हरि हरि उमड़यो जहँ आनन्द रहत नित आला रे हरी॥
बिना परस्पर प्रेम प्रेमघन तहँ लखियत सब भाँतिन रामा।
हरि हरि साँचे-साँचे सुख को सचमुच ठाला रे हरी॥143॥