भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खद्योत दर्शन / अज्ञेय
Kavita Kosh से
चाँद तो थक गया, गगन भी बादलों से ढक गया
बन तो बनैला है-अभी क्या ठिकाना कितनी दूर तक फैला है!
अन्धकार। घनसार।
अरे पर देखो तो वो पत्तियों में
जुगनू टिमक गया!
बैजनाथ कांगड़ा, जून, 1950