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ख़ौफ़ / जयप्रकाश मानस
Kavita Kosh से
जाने-पहचाने पेड़ से
फल के बजाय टपक पड़ता है बम
काक-भगोड़ा राक्षस से कहीं ज़्यादा भयानक
अपना ही साया पीछा करता दीखता
किसी पागल हत्यारे की तरह
नर्म सपनों को रौंद-रौंद जाती है कुशंकाएँ
वालहैंगिंग की बिल्ली तब्दील होने लगती है बाघ में
इसके बावजूद
दूर-दूर तक नहीं होता कोई शत्रु
वही आदमी मरने लगता है
जब ख़ौफ समा जाता है मन में