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गर्मियाँ दिन को उबालें / गीता पंडित

गर्मियाँ दिन
को उबालें हैं सुबह से
भोर को भी तो पसीना
आ रहा है
 
सूर्य भरकर
कांख में लो आग आता
हर सुबहा का
श्वास अग्नि में जलाता

कौन है
ऋतु का मसीहा आज देखो
बादलों का
राग लेकर गा रहा है

हैं चले ए, सी. दिवारें कुड़कुड़ातीं
झौंपड़ी तपते तवे-सी
छुनछुनातीं

किन्तु फिर भी है कोई
सबके लिए जो
अंक में
भरकर हवाएँ ला रहा है
भोर को भी तो पसीना
आ रहा है।