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गह हम से ख़फ़ा वो हैं गहे उन से ख़फ़ा हम / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

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गह हम से ख़फ़ा वो हैं गहे उन से ख़फ़ा हम
मुद्दत से इसी तरह निभी जाती है बाहम

करते हैं ग़लत यार से इज़हार-ए-वफ़ा हम
साबित जो हुआ इश्क़ कुजा यार कुजा हम

कुछ नश्शा-ए-मय से नहीं कम नश्शा-ए-निख़वत
तक़वा में भी सहबा का उठातें हैं मज़ा हम

मौजूद है जो लाओ जो मतलूब है वो लो
मुश्ताक़-ए-वफ़ा तुम हो तलब-गार-ए-जफ़ा हम

नै तबा परेशाँ थी न ख़ातिर मुतफ़र्रिक़
वो दिन भी अजब थे के हम और आप थे बाहम

क्या करते हैं क्या सुनते हैं क्या देखते हैं हाए
उस शोख़ के जब खोलते हैं बंद-ए-क़बा हम

ये तर्ज़-ए-तरन्नुम कहीं ज़िंहर न ढूँढो
ऐ ‘शेफ़्ता’ या मुर्ग़-ए-चमन रखते हैं या हम