भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाँव हो या शहर / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
गाँव हो या शहर
बचा कोई नहीं
दगहिल खराब होने से
तलातली पतन से।
हराम हो गया
सुबह से शाम तक जीना--
रात में सोना।
असम्भव हो गया
सुरक्षा की सड़कों पर
सुरक्षा से चलना।
किसी का चाकू
किसी के पेट में घुसा
और आदमी का चिराग
समय से पहले बुझा।
बढ़ते-बढ़ते
बेहद बढ़ गया गम
अराजकता नहीं हो पा रही कम।
रचनाकाल: २२-०२-१९७८