गीत बन ढलने लगे हैं / यतींद्रनाथ राही
बोल आकर क्यों अधर पर
गीत बन ढलने लगे हैं?
छू गया आकर
किसी मधु गन्ध का
संस्पर्श कोमल
शान्त सुप्तिथ झील में
फिर हो उठी है
एक हलचल
खुल गए हैं
उस पुरातन ग्रन्थ के
कितने कथानक
हो गयी आकर खड़ी है
ज़िन्दगी जैसे अचानक
हम
किसी स्वप्निल जगत में
दूर तक
तिरने लगे हैं।
संस्मरण हैं
विस्मरण हैं
कुछ कहे, कुछ अनकहे से
कुछ उफनते से समुन्दर
कुछ नदी बन कर बहे से
लाज में सिमटे खड़े
कुछ
प्रीतिवलयित संवरण हैं
प्रथम दृष्टया नयन उलझे से
मधुर कुछ संस्करण हैं
एक पावन दिव्यतम
अनुभूति में
घुलने लगे हैं
वे, लिखित थे
या अलेखित
प्यार के अधिकार कितने
देह की परिसीमता के पार के
अभिसार कितने
शब्द कुछ उलझे पलक में
कुछ कपोलों पर ढुलकते
खोजने को अर्थ तुम
विज्ञान के पन्ने पलटते
पुलकनों पर सजल घन
आनन्द के झरने लगे हैं।