गीतावली उत्तरकाण्ड पद 21 से 30 तक/ पृष्ठ 2
(वसन्त-विहार 2)
अरुनबरन पदपङ्कज, नखदुति इंदु-प्रकास |
जनक-सुता-करपल्लव-लालित बिपुल बिलास ||
कञ्जकुलिस-धुज-अंकुस-रेख रचन सुभ चारि |
जन-मन-मीन हरन कहँ बंसी रची सँवारि ||
अंग अंग प्रति अतुलित सुषमा बरनि न जाइ |
एहि सुख मगन होइ मन फिरि नहि अनत लोभाइ ||
खेलत फागु, अवधपति, अनुज-सखा सब सङ्ग |
बरषि सुमन सुर निरखहिं सोभा अमित अनङ्ग ||
ताल, मृदङ्ग, झाँझ, डफ बाजहिं पनव-निसान |
सुघर सरस सहनाइन्ह गावहिं समय समान ||
बीना-बेनु-मधुर-धुनि सुनि किन्नर-गन्धर्ब |
निज-गुन गरुअ हरुअ अति मानहिं मन तजि गर्ब ||
निज-निज अटनि मनोहर गान करहिं पिकबैनि |
मनहुँ हिमालय-सिखरनि लसहिं अमर-मृगनैनि ||
धवल धामतें निकसहिं जहँ तहँ नारि-बरूथ |
मानहुँ मथत पयोनिधि बिपुल अपसरा-जूथ ||
किंसुकबरन सुअंसुक सुषमा सुखनि समेत |
जनु बिधु-निबह रहे करि दामिनि-निकर निकेत ||
कुङ्कुम सुरस अबीरनि भरहिं चतुर बर नारि |
रितु सुभाय सुठि सोभित देहिं बिबिध बिधि गारि ||
जो सुख जोग, जाग, जप, अरु तीरथतें दूरि |
राम-कृपातें सोइ सुख अवध गलिन्ह रह्यो पूरि ||
खेलि बसन्त कियो प्रभु मज्जन सरजूनीर |
बिबिध भाँति जाचक जन पाए भूषन चीर ||
तुलसिदास तेहि अवसर माँगी भगति अनूप |
मृदु मुसुकाइ दीन्हि तब कृपादृष्टि रघुभूप ||