भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीतावली लङ्काकाण्ड पद 1 से 5 तक/पृष्ठ 5

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 (5)
लक्ष्मण-मूर्च्छा

  रागकेदारा
 
  राम-लषन उर लाय लये हैं |
  भरे नीर राजीव-नयन सब अँग परिताप तए हैं ||

  कहत ससोक बिलोकि बन्धु-मुख बचन प्रीति गुथए हैं |
  सेवक-सखा भगति-भायप-गुन चाहत अब अथए हैं ||

  निज कीरति-करतूति तात! तुम सुकृती सकल जए हैं |
  मैं तुम्ह बिनु तनु राखि लोक अपने अपलोक लए हैं ||

  मेरे पनकी लाज इहाँलौं हठि प्रिय प्रान दए हैं |
  लागति साँगि बिभीषन ही पर, सीपर आपु भए हैं ||

  सुनि प्रभु-बचन भालु-कपि-गन, सुर सोच सुखाइ गए हैं |
  तुलसी आइ पवनसुत-बिधि मानो फिरि निरमये नए हैं ||