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गॉव याद आबै छै / प्रदीप प्रभात
Kavita Kosh से
गॉव याद आबै छै
महकै छै सासोॅ मेॅ
मांटी के सोन्होॅ सुगन्ध।
पीपर के पत्ता डोलै छै
आशीष बोलै छै
गॉव याद आबै छै।
गैया के गोबर सेॅ
माय के हाथोॅ सेॅ
निपलोॅ घोॅर ऐंगन।
तुलसी के चौरा
मनोॅ मेॅ भावै छै
गॉव याद आबै छै।
खेतोॅ मेॅ झुली रहलोॅ छै
धानोॅ के बाली।
गहूँम बुभै खातिर
खेत पड़लोॅ छै खाली।
सरसौं के फूल लुभावै छै,
गॉव याद आबै छै।
सुहानों लागै छै,
टुन-टुन बैलोॅ के जोड़ी।
लादलोॅ अनाज पीठी पर,
साहु रोॅ घोड़ी।
गैया डिफरै छै
बछिया पिलावै छै।
गॉव याद आबै छै
आशीष बोलै छै।
आमोॅ गाछी मेॅ एैलोॅ मंजर,
भोररिया गिरै छै महुआ भर-भर।
यादों रोॅ झरोखा मेॅ बैठलोॅ छी,
बीतलोॅ दिनों केॅ मनोॅ मेॅ गुणैं छी।